अंगुली उठाना है सरल-17-Sep-2023
अंगुली उठाना है सरल
दूसरों पर अंगुली उठाना है सरल सबसे जहां
खुद में खुद को झांकना क्यों?है कठिन उतना वहां ढूंढना कमियां किसी में सीख जाते खुद ही हम
क्यों नहीं खुद को समझते भूल जाते क्यों स्वयं
मानवीय कैसा हमारा स्वयं का व्यवहार है
जीत में तो जीत है पर हार क्यों ना हार है
मक्खियां खुद पर उड़े तो हाथ उठता मारने
गंदगी खुद में भरा है पर चाहते ना जानने
दूसरों पर जब उठाते हो कभी भी अंगुलियां
तो इशारा अंगुलियों ने तुम पर भी तो है किया
रोज मरते रोज जीते हो ईर्ष्या और द्वेष में
है छिपा मन जो तेरे दुष्ट कौन किस भेष में
जंग जीवन का हमेशा जीतना ना नेक है
हारना भी है कभी इस जिंदगी में श्रेष्ठ है
हार का सम्मान देखो वक्ष से कैसे लगा
पड़ गले में जीतता मन मोहता कैसे सजा
ढो रहे हो जिंदगी को बोझ सा बोझिल बना
रोज का ही रोज मंथन मन में रहता है ठना
खोजते हो सुख अपने ही नित ऐसे कर्म में
है छिपा जो जिंदगी के सत्य सुंदर मर्म में
आदमी हो आदमी सा जीवन जीना सीख लो
मन के अपने दुर्गुणों को सबसे पहले खींच लो
आज का तो आज ही है कल का भी कुछ सोंच लो
बिन फले पौधे का डाली पहले ही ना नोंच लो
आज हों कल क्या पता कि हम रहे या ना रहें
ना रहें हम तो समझ लो कुछ तो देकर जा रहें
बांट लो जो कुछ मिला है प्यार का हिस्सा हमें
साथ जाएगा नहीं कुछ क्या हमें फिर क्या तुम्हें
प्यार में जन्नत हमारा प्यार में सारे जहां
है जहां ना प्यार कोई फिर बचा है क्या वहां
रचनाकार
रामबृक्ष बहादुरपुरी
अम्बेडकरनगर उत्तर प्रदेश
Reena yadav
18-Sep-2023 05:11 PM
👍👍
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